शिव ने दिया था नाम, विक्रमादित्य ने चढ़ाए 12 सिर; ऐसी है मां हरसिद्धि की कहानी
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Ujjain News: उज्जैन में शक्तिपीठ मां हरसिद्धि का प्राचीन मंदिर स्थित है. वैसे तो यहां सालभर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन नवरात्रि के दौरान भक्तगण खास तौर से दर्शन के लिए आते हैं. मान्यता है कि यहां माता सती के शरीर का अंश हाथ की कोहनी आकर गिरी थी, इसीलिए इसे शक्ति पीठ माना जाता है. शक्तिपीठ होने से इस मंदिर का महत्व बहुत अधिक है. यह एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां पर तीनों देवियां एक साथ विराजित हैं. सबसे ऊपर लक्ष्मी, बीच में हरसिद्धी और नीचे सरस्वती विराजित हैं. मान्यता है कि देवी हर काम को सिद्ध करने वाली हैं. इस मंदिर का पुराणों में भी उल्लेख मिलता है. देवी से जुड़ी कई मान्यताएं और कथाएं हैं. वर्ष की दोनों नवरात्रि के दौरान यहां उत्सव का माहौल रहता है. बड़ी संख्या में दूर-दूर से श्रद्धालु यहां माता का आशीर्वाद लेने आते हैं.
स्कन्दपुराण के 426 पृष्ठ के तांत्रिक ग्रंथ के तृतीय खंड के अनुसार इसे हरसिद्धी कहा गया है. मंदिर के गर्भगृह की शिला पर श्रीयंत्र उत्कीर्ण है. यहां वर्षो से अखंड ज्योत विद्यमान है, जो सदा जलती रहती है. उज्जैन में प्रसिद्ध धार्मिक स्थल होने के साथ तांत्रिक क्रियाओं का गढ़ रहा है. ऐसे में हरसिद्धी शक्तिपीठ होने से देश भर से तांत्रिक अधोरी नवरात्री में यहां पर तंत्र क्रिया करते हैं. हरसिद्धि मंदिर की चारदीवारी के अंदर 4 प्रवेशद्वार हैं.
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सती के शरीर के किए थे 51 टुकड़े
पुराणों के अनुसार सती के पिता प्रजापति दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिए यज्ञ किया था. दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में शिव को छोड़कर ब्रम्हा-विष्णु सहित सभी देवी-देवताओं को न्यौता दिया. शिव पत्नी माता सती इस अपमान को सह नहीं पाई और पिता के उस यज्ञ में ही अपने शरीर की आहुति दे दी. जिससे क्रोधित शिव सति का जलता हुआ शरीर लेकर पूरे ब्रह्मांड में घूमने लगे. शिव की दशा देख भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के शरीर को 51 टुकड़ों में बांट दिया. ये हिस्से जहां-जहां गिरे वहां सिद्ध शक्तिपीठ बन गया. ऐसे में सती की कोहनी का एक हिस्सा टुकड़ा उज्जैन में गिरा था. जिसके बाद यह हरसिद्धी नामक शक्तिपीठ बन गया.
ऐसे पड़ा हरसिद्धि नाम
कहते हैं कि चण्ड और मुण्ड नामक दो दैत्यों ने अपना आतंक मचा रखा था. एक बार दोनों ने कैलाश पर कब्जा करने की योजना बनाई और वे दोनों वहां पहुंच गए. उस दौरान माता पार्वती और भगवान शंकर द्यूत-क्रीड़ा में निरत थे. दोनों जबरन अंदर प्रवेश करने लगे, तो द्वार पर ही शिव के नंदीगण ने उन्हें रोका दिया. दोनों दैत्यों ने नंदीगण को शस्त्र से घायल कर दिया. जब शिवजी को यह पता चला तो उन्होंने तुरंत चंडीदेवी का स्मरण किया. देवी ने आज्ञा पाकर तत्क्षण दोनों दैत्यों का वध कर दिया. फिर उन्होंने शंकरजी के निकट आकर विनम्रता से वध का वृतांत सुनाया. शंकरजी ने प्रसन्नता से कहा- हे चण्डी, आपने दुष्टों का वध किया है, अत: लोक-ख्याति में आपना नाम हरसिद्धि नाम से प्रसिद्ध होगा. हरसिद्धि का मतलब होता है हर कार्य को सिद्ध करने वाली देवी. तभी से इस महाकाल-वन में हरसिद्धि विराजित हैं.
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राजा विक्रमादित्य ने चढ़ाए 12 सिर
मान्यता है कि यह स्थान सम्राट विक्रमादित्य की तपोभूमि है. ऐसा बताया जाता है कि मां हरसिद्धी सम्राट राजा विक्रमादित्य की कूलदेवी थीं. मंदिर के पीछे एक कोने में कुछ ‘सिर’ सिन्दूर चढ़े हुए रखे हैं. ये ‘विक्रमादित्य के सिर’ बतलाए जाते हैं. महान सम्राट विक्रमादित्य ने देवी को प्रसन्न करने के लिए प्रत्येक 12वें वर्ष में अपने हाथों से अपने मस्तक की बलि दे दी थी. उन्होंने ऐसा 11 बार किया, लेकिन हर बार सिर वापस आ जाता था. 12वीं बार सिर नहीं आया तो वह समझ गए कि उनका शासन संपूर्ण हो गया है. हालांकि उन्होंने 135 वर्ष शासन किया था.
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